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पार्किंसन्स एक अभिशाप?

पार्किन्संस एक अभिशाप ?
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पार्किंसन्स  एक अभिशाप?

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– संजीव शर्मा

दुःखभंजन मेडिकल रिलीफ़ एंड रिसर्च सोसाइटी, राजस्थान
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वर्तमान  समय में  ‘पार्किंसन्स डीज़ीज़’ एक त्वरित  गति से बढ़ती  हुई  बीमारी  है।  यह  आमतौर  पर 50 वर्ष की  उम्र के बाद होने  वाली ‘नर्वस-सिस्टम’ से सम्बंधित  बीमारी  है। इस बीमारी  का  मूल कारण  ‘स्नायु-तंत्र’ के उत्तकों  का ह्रास  होना है।  यह ह्रास  मस्तिष्क  में स्थित  ‘सब्स्टेंशिया-नाइग्रा’ द्वारा स्त्रावित पदार्थ (केमिकल ) ‘डोपामाइन’ में  आई सतत  कमी  के कारण  होता है। मस्तिष्क में हो रहे इन ‘डोपामाइन-न्यूरॉन्स’ के सतत ह्रास  का अब  तक कोई ठोस या  प्रमाणित  कारण  वतर्मान में चिकित्सीय-विज्ञान  नहीं  खोज पाया है।

‘डोपामाइन’ में  आई इस कमी का सीधा असर मस्तिष्क के हिस्से ‘स्ट्रेटम’ पर पड़ता  है  जो कि  मानव  शरीर  की क्रियाकलापों एवं हलचल  को नियंत्रित करता है।

आयुर्वेद में  इस बीमारी  का  कारण ‘वात-दोष’ को  माना है। आयुर्वेद के अनुसार यह  रोग  शरीर  में ‘वात’ के  कुपित  एवं बाध्य होने  पर होता है।  मुख्यतः यह रोग ‘आपान’ वायु  के दीर्घकालिक (क्रोनिक) असंतुलन  की वज़ह से होता है।  इस असंतुलन के कारण  ‘प्राण’ वायु  कुपित होकर  स्नायु-तंत्र  पर प्रभाव डालती  है।

‘पार्किंसन्स डीज़ीज़’ के  लक्षण :

1. ‘स्नायु-तंत्र’ के कमजोर होने के कारण शारीरिक क्रियाओं  में बाधाएं  आने लगती हैं।

2. हाथों में  कंम्पन आने लगतें हैं एवं यह कंम्पन धीरे-धीरे  बढ़ने लगतें हैं।

3. चलते समय शारीरिक संतुलन बनाने में  कठिनाई  आने लगती है।

4. शरीर की  सभी  इन्द्रियाँ क्षीण एवं शिथिल पड़ने लगतीं हैं।

5. मुंह में  लार (सलाईवेशन) आने  की मात्रा अत्यधिक  बढ़ जाती है तथा इसके कारण बोलने में भी दिक्कत आने लगती है।

6. नज़र में धुंधलापन  आने  लगता  है।

7. शरीर  की कार्यकुशलता  में कमी  आ जाती है।

8. हाथों  में कम्पन आने  के कारण  लिखावट में  गड़बड़ एवं  बदलाव  आने  लगतें हैं।

‘पार्किंसन्स डीज़ीज़’ के  उपचार :

यूँ  तो  ‘पार्किंसन्स डीज़ीज़’ का अबतक  कोई  शर्तिया  ईलाज़ नहीं मिला है परन्तु  कुछ सावधानियों का ध्यान रखते हुए  यदि  मरीज़  का  उपचार किया जाए  तो कुछ  हद  तक  इस बीमारी पर काबू पाया  जा  सकता  है।

आयुर्वेद में उपचार : आयुर्वेद में  इस बीमारी  के उपचार के लिए मुख्यतः कौंच, खुर्सानी अजवाईन एवं  बाला (सिदा कोरडिफोलिआ) को अन्य  सहयोगी औषधियों के साथ क्वाथ, अवलेह(प्राश) अथवा काढ़े के  रूप में रोगी  को देते हैं।

एलोपैथ में उपचार :

एलोपैथ  में  लक्षणात्मक रूप से  इस बीमारी  के  उपचार  हेतु मुख्यतः ‘लेवोडोपा’ नामक  दवाई दी  जाती  है  जो  कि ‘एल-डोपा’ के  नाम से प्रचलित  है। ‘लेवोडोपा’ मस्तिष्क  में पहुँच कर ‘डोपामाइन’ की मात्रा  को बढ़ाने  में मदद  करती है।  ‘लेवोडोपा’ को  अक्सर ‘कारबिडोपा’ के साथ संयुक्तरूप में दिया  जाता  है  क्यूंकि ‘कारबिडोपा’ ‘लेवोडोपा’ को ‘डोपामाइन’ की मात्रा  को बढ़ाने  में मदद  करती है एवं  ‘लेवोडोपा’  के कई  ‘साईड-इफेक्टस्’ को कम  करती  है।  मितली व वमन  में  राहत  पहुंचाती  है।

आमतौर पर ‘एल-डोपा’ के उपचार को लेते  समय  निम्न ‘साईड-इफेक्टस्’  हो  सकतें हैं : 1. ‘डिस्किनीजीआ’ (मांसपेशीय-तनाव) 2. हाईपोटेंशन (निम्न-रक्तचाप) 3. ‘एरिथ्मिआ’ (असंतुलित हृदय गति) 4. पाचन क्रियाओं में  बदलाव 5. जी  घबराना एवं  मितली  आना 6. बालों  का  गिरना 7. अनिद्रा एवं 8. भ्रमित होना आदि।

‘एल-डोपा’ के अलावा  एलोपैथ  में ‘मोनो-ए-माईन ओक्सीडाईज़ड’ व ‘एमेंटेडाईन’ भी  दी  जाती  है।   ‘मोनो-ए-माईन ओक्सीडाईज़ड’ एक प्रकार का  एन्जाईम है  जो मस्तिष्क  में ‘डोपामाइन’ को  संवर्द्धित करके उसके स्त्राव को बढ़ाने  में  मदद  करता  है वहीं  ‘एमेंटेडाईन’ को इस  बीमारी के शुरूआती तौर पर  उपचार के रूप  में  देते  हैं।

शल्य चिकित्सा  द्वारा उपचार:

इस  बीमारी  में शल्य चिकित्सा  द्वारा भी  उपचार किया  जाता  है।  अंतः मस्तिष्क उत्प्रेरक  (डीप ब्रेन स्टिम्यूलेशन) क्रिया द्वारा  मस्तिष्क  में हलके इलेक्टिक करेंट  को प्रवाहित  करके  मस्तिष्क  के ‘न्यूरॉनस्’ को  पुनः कार्यशील  बनाया  जाता है।  ‘डीप ब्रेन स्टिम्यूलेशन’ की  क्रिया  में शल्य-क्रिया द्वारा मस्तिष्क  में एक  निश्चित स्थान  पर ‘इलेक्ट्रोडस्’ को प्रतिस्थापित (इम्प्लांट) कर दिया  जाता  है एवं  बाहर से समय-समय पर हलके इलेक्टिक करेंट दिए  जातें  हैं।  यह ईलाज़ ‘एल-डोपा’ के  बे-असर होने की  दशा में  किया  जाता  है।

घरेलू एवं सहज व्यवहारिक उपचार :

‘पार्किंसन्स डीज़ीज़’  चिकित्सा-विज्ञान  के  लिए  आदिकाल से  एक  चुनौती बनी हुई है। चिकित्सक  सतत  रूपसे इस  बीमारी  का  कोई  ठोस एवं  कारगर ईलाज़ प्राप्त करने की दिशा  में  प्रयासरत हैं।  इन्हीं  प्रयासों  का  यह परिणाम  है कि  आज  इस बीमारी  को  कुछ  सहज  एवं आसान  घरेलू  तरीकों द्वारा  काफी हद तक सही किया  जा सकता है। इन  घरेलू  उपायों  को  नियमितरूप से  यदि कोई  रोगी अपनाता है तो  वह  40 से 50 प्रतिशत  तक इस बीमारी से राहत पा सकता है। यह उपाय  निम्नप्रकार से हैं :

1. नित्य  गर्म पानी  से स्नान करें (गर्मी के मौसम में भी )।

2. दिन  में  दो बार  बाल्टी में गर्म पानी भरके उसमें थोड़ासा ‘वेपोराइज़र’ या बाम डालकर सर पर  तौलिया रखकर भाप का सेवन करें।

3. नित्य दिन में  दो बार ‘अनुलोम-विलोम’ व  ‘भ्रामरी’ की योगिक क्रिया करें।

4. फलों का  सेवन अधिक व नित्य करें।

5. करीब 10 से 20 ग्राम अलसी (फलेक्स-सीड) का सेवन सुबह एवं शाम को करें (दिन में दो बार)।

6. ‘पाइराडॉक्सिन’ (विटामिन बी-6) की अधिक मात्रा वाली ‘मल्टी-विटामिन’ की गोली नित्य लेवें।

7. मुँह में अधिक लार आने की दशा में ‘एट्रोपिन’ 1% ‘आई-ड्रॉप्स’ की  एक बूँद  12-12 घंटे में जीभ के नीचे (सब लिंगुअल ) डालें।   (‘आई-ड्रॉप्स’ के  मुँह में  डालने पर  आश्चर्य न करें, आंखों में डाली गई कोई भी ‘आई-ड्रॉप्स’ थोड़ी देर में मुँह में ही आती है अतः किसी साईड इफेक्ट की  चिंता न करें) । यह एक  कारगर उपाय है  एवं अमेरिका में इसे  डॉक्टर्स अपने  रोगियों को उपचार के रूप में बतानें लगे हैं। छोटे बच्चों के यदि मुँह में लार आना बंद नहीं होती है तो उस अवस्था में भी इस उपचार को काम में लेते हैं।

8. चलते समय ध्यान रखकर पहले एड़ी जमीन पर टिकायें एवं उसके बाद पंजे को टिकायें इससे आपको चलने में आसानी महसूस होगी व शारीरिक  संतुलन बना रहेगा ।

9. नित्य सुबह एक चम्मच “कौंचपाक” का  सेवन करें।

10. प्रतिदिन  एक पेज़ अपने हाथ से लिखें एवं अपने हस्ताक्षर का  रोजाना 10-15 बार  अभ्यास करें ।

11. हो सके तो प्रतिदिन ‘क्रॉस-वर्ड’ व ‘सुडोकू’ आदि मस्तिष्क पर ज़ोर डालने वाले कार्य करें इससे आपके मस्तिष्क के ‘न्यूरॉन्स’ शिथिल नहीं पड़ेंगे व पूर्णरूप से सक्रिय रहेंगे। यह क्रिया आपको ‘अल्ज़ाईमर’ से पीड़ित होने से भी बचायेगी ।

नई खोज:

मानव मस्तिष्क  में  यह खूबी है कि  यदि किसी काम को करने के लिए कुछ ‘न्यूरॉन्स’ बिगड़  जाते हैं तो  मस्तिष्क स्वतः ही ‘न्यूरॉन्स’ का दूसरा ‘सर्किट’ बना कर उस  काम  को  पूर्ण करने की चेष्टा करता है। इसी खूबी को उपयोग में लाते हुए वैज्ञानिकों नें इस बीमारी का एक और कारगर उपाय निकाला है।

इस उपाय में वैज्ञानिकों नें प्रतिक्रिया-अभियांत्रिकी (रिवर्स-इंजीनियरिंगस्) के सिद्धांत को मानव शरीर पर आज़माते हुए कुछ परीक्षण किये एवं पाया कि यदि इस बीमारी से पीड़ित रोगी को नियंत्रितरूप से ‘फ़ोर्स-एक्सरसाईज़’ कराई जाए तो उस रोगी का मस्तिष्क इन जबरन करी गयी क्रियाओं को अपने अंदर बचे हुए ‘एक्टिव-न्यूरॉन्स’ द्वारा स्वीकार कर लेता है एवं उन क्रियाओं को नियमित रूप से करने के लिए ‘न्यूरॉन्स’ का दूसरा ‘सर्किट’ बना लेता है । चिकित्सीय वैज्ञानिकों नें यह पाया कि यदि रोगी को एक मिनिट में 90 बार ‘फ़ोर्स-साईकिलिंग’ नियमित रूप से करातें हैं तो वह रोगी अपने आपको इस रोग से तकऱीबन मुक्त महसूस करता है ।

अब यह सिद्ध हो चुका है कि यदि रोगी स्वयं व उसके घर वाले मिलकर पुरज़ोर कोशिश करें तो ‘पार्किंसन्स डीज़ीज़’ अब एक अभिशाप नहीं है व अब सतत प्रयासों द्वारा इस रोग पर काबू पाया जा सकता है।
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Article written by:


SANJEEV SHARMA
Treasurer, Dukhbhanjan Medical Relief & Research Society, Rajasthan

e-mail: dukhbhanjan.mrrs@gmail.com

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